Saturday, September 14, 2024
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‘पन्ने’ फिल्म और बांग्लादेश की राजनीतिक अशांति के बीच गहरा संबंध

पूरी दुनिया में, इस समय हर कोई बांग्लादेश में चल रहे सामाजिक अशांति के कारण वहां के लोगों द्वारा झेली जा रही उथल-पुथल के बारे में बात कर रहा है, जिसके कारण बांग्लादेश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना को इस्तीफा देना पड़ा।

बांग्लादेश ने अपने इतिहास में कई बार ऐसी ही स्थितियों का सामना किया है। संयोग से, अंतर्राष्ट्रीय फिल्म निर्माता राम अल्लाडी की आगामी फिल्म ‘पन्ने’ में भी ऐसी ही एक संकट को दर्शाया गया है।

“जब मैं बांग्लादेश में चल रही घटनाओं के बारे में समाचार देखता हूं, तो मुझे आश्चर्य होता है। मुझे लगता है कि इतिहास खुद को दोहराता है, यह कहावत गरीब बांग्लादेशियों पर सटीक बैठती है। दो साल पहले, जब मैं अपनी फिल्म के लिए नोआखली दंगों के दृश्य की शूटिंग कर रहा था, तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि जब मैं फिल्म रिलीज करूंगा, तब सच में लोग एस तरह की समस्या जेल रहे होंगे। मेरे पास उस समय की कुछ रियल पिक्चर्स है, लेकिन वे इतने हिंसक हैं कि वह देख कर आपकी आत्मा अंदर से कांप उठेगी।” राम अल्लाडी ने फिल्म पन्ने का बांग्लादेश दंगों से संबंध बताते हुए कहा

फिल्म में बांग्लादेश दंगों के साथ ऐतिहासिक संबंध के बारे में बताते हुए राम अल्लाडीने कहा, “नोआखली दंगों के बीज भारत में आजादी से पहले 1935 में हुए पहले चुनावों के दौरान बोए गए थे, जब बंगाल में मुस्लिम समुदाय सत्ता में आया था। इससे पहले ब्रिटिश शासन में हिंदू जमींदार मुख्य रूप से सत्ता में थे, जिन्हें नए सरकारी नियमों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था, जिससे समाज में निराशा और गुस्सा पैदा होता था। नतीजतन, बांग्लादेश में दोनों समुदायों के बीच मतभेद शुरू हो गए, लेकिन यह तब बड़ा हो गया जब ब्रिटिश शासन खत्म हो रहा था। 11 अक्टूबर 1946 को बांग्लादेश के नोआखली जिले में दंगे शुरू हो गए। अगर आप इस घटना के बाद बांग्लादेश के राजनीतिक इतिहास को भी देखें, तो उन्होंने ऐसी कई चुनौतियों का सामना किया है और राख से उठकर खड़े हुए हैं।”

राम अल्लाडी जिन्होंने अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों चिसेल्ड (2017) और ‘रा स मेटानोइया’ के लिए कई पुरस्कार जीते हैं, वे 6 सितंबर को ‘इनटॉल्कीज़’ पर अपनी पहली पूर्ण फ़िल्म ‘पन्ने’ रिलीज़ करने के लिए तैयार हैं।

‘पन्ने’ भारत की आज़ादी के बाद के दौर की कहानी है। युद्ध में शहीद हुए एक विधवा की बेटी अपने सौतेले दादा के राजनीतिक साम्राज्य के उदय के बाद अपनी सामाजिक पहचान हासिल करने की कोशिश करती है। कहानी सीमा विभाजन के दौर से लेकर 1960 के आज़ाद भारत तक की यात्रा करती है।

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